संविधान की प्रस्तावना से आखिर क्यों ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवादी’ शब्द हटाने की उठी मांग, पढ़ें ये रिपोर्ट
New Delhi : संविधान की प्रस्तावना से ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवादी’ शब्द हटाने की उठी मांग उठी है. तब ये सवाल उठना लाजमी है कि क्या संविधान की प्रस्तावना में बदलाव किया जा सकता है? बता दें कि भाजपा नेता और पूर्व राज्यसभा सांसद सुब्रमण्यम स्वामी ने इसको लेकर शीर्ष अदालत में याचिका दायक की है. इसके अलावा इस मामले को लेकर दो और याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में दायर की गई है. हालांकि ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवादी’ हटाने की मांग वाली याचिका को सुप्रीम कोर्ट ने अगस्त तक के लिए टाल दिया है. वहीं इन याचिकाओं पर जस्टिस संजीव खन्ना ने 12 अगस्त के बाद की तारीख पर सुनवाई करने को कहा है.
हालांकि यहां ये जिक्र करना जरूरी है कि आखिर संविधान की प्रस्तावना में ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवादी’ शब्द कैसे जोड़े गए? अब इन दो शब्दों को हटाने की मांग किस आधार पर की जा रही है? और क्या वाकई ऐसा हो सकता है? आइए जानते हैं-
976 का वह 42वां संशोधन
जून 1975 से मार्च 1977 के बीच तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने कई बार संविधान में संशोधन किए. लेकिन सबसे बड़ा बदलाव दिसंबर 1976 में किया गया. इंदिरा सरकार ने संविधान में 42वां संशोधन किया. इसे अब तक का सबसे विवादित संशोधन माना जाता है.
42वें संशोधन के ज़रिए संविधान की प्रस्तावना में तीन शब्द – ‘समाजवादी’, ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘अखंडता’ जोड़े गए. यह पहला और आखिरी मौका था जब संविधान की प्रस्तावना में बदलाव किया गया. इन शब्दों को जोड़ने के पीछे तर्क दिया गया कि देश का धार्मिक, सामाजिक और आर्थिक रूप से विकास करना ज़रूरी है.
1976 के 42वें संशोधन की सबसे खास बात यह थी कि संसद के फैसले को किसी भी तरह से अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती थी. सांसदों और विधायकों की सदस्यता को भी अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती थी. वहीं संसद का कार्यकाल भी पांच साल से बढ़ाकर छह साल कर दिया गया.
42वें संशोधन के प्रावधानों में से एक प्रावधान राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों को मौलिक अधिकारों पर तरजीह देना था. इससे किसी भी व्यक्ति को उसके मौलिक अधिकारों से वंचित किया जा सकता था. इतना ही नहीं, केंद्र सरकार को कानून-व्यवस्था बनाए रखने के लिए किसी भी राज्य में सेना या पुलिस बल भेजने का अधिकार भी मिल गया.
1977 में केंद्र में जनता पार्टी की सरकार आने के बाद 44वें संविधान संशोधन के ज़रिए 42वें संशोधन के कई प्रावधानों को निरस्त कर दिया गया. हालांकि, संविधान की प्रस्तावना में किए गए बदलावों से कोई छेड़छाड़ नहीं की गई.
अब इन्हें हटाने की मांग क्यों?
सुब्रमण्यम स्वामी ने अपनी याचिका में संविधान की प्रस्तावना में ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवादी’ शब्द जोड़े जाने की वैधता को चुनौती दी है. दलील दी गई है कि संविधान के अनुच्छेद 368 के तहत ऐसा संशोधन संसद के अधिकार क्षेत्र से बाहर है. यानी संसद संविधान में ऐसा संशोधन नहीं कर सकती.
हालांकि पिछली सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि यह सच नहीं है कि संविधान में संशोधन नहीं किया जा सकता. उन्होंने वकीलों से कहा कि वे अकादमिक दृष्टिकोण से इस बात पर विचार करें कि संविधान की प्रस्तावना में संशोधन किया जा सकता है या नहीं.
याचिका में दावा किया गया है कि संविधान निर्माताओं का कभी भी लोकतांत्रिक शासन में ‘धर्मनिरपेक्षता’ और ‘समाजवाद’ शब्दों को शामिल करने का इरादा नहीं था. यह भी दावा किया गया है कि डॉ. बीआर अंबेडकर ने इन शब्दों को शामिल करने को अस्वीकार कर दिया था. वहीं, कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) के राज्यसभा सांसद बिनॉय विश्वम ने इन याचिकाओं का विरोध किया और कहा कि ‘धर्मनिरपेक्षता’ और ‘समाजवाद’ संविधान की विशेषताएं हैं, इसलिए इन शब्दों को प्रस्तावना में जोड़ने से संविधान का मूल ढांचा नहीं बदलता है.
क्या इन शब्दों को हटाया जा सकता है?
संविधान के अनुच्छेद 368 के अनुसार संसद संविधान में संशोधन कर सकती है. लेकिन इसकी एक सीमा है. 1973 में सुप्रीम कोर्ट ने केशवानंद भारती मामले में ऐतिहासिक फैसला सुनाया था. इस मामले में सुप्रीम कोर्ट के 13 जजों की बेंच ने फैसला सुनाया था कि संसद को संविधान में संशोधन करने का अधिकार है, लेकिन इसकी प्रस्तावना के मूल ढांचे को नहीं बदला जा सकता. सुप्रीम कोर्ट ने साफ कर दिया था कि कोई भी संशोधन संविधान की प्रस्तावना के खिलाफ नहीं हो सकता. हालांकि, इस फैसले के तीन साल बाद 42वें संशोधन के जरिए संविधान की प्रस्तावना में तीन शब्द जोड़े गए.
सुब्रमण्यम स्वामी की याचिका पर सुनवाई करते हुए जस्टिस संजीव खन्ना ने कहा कि जहां तक ’धर्मनिरपेक्ष’ शब्द का सवाल है, इस कोर्ट के कई फैसले हैं जो मानते हैं कि यह संविधान का मूल ढांचा है. ‘समाजवादी’ शब्द पर उन्होंने कहा कि शायद हमने समाजवादी शब्द की अपनी परिभाषा दे दी है. हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने सुब्रमण्यम स्वामी समेत तीनों याचिकाओं पर सुनवाई के लिए 12 अगस्त के बाद की तारीख तय करने को कहा है.